अहंकारी धनुर्धारी

महेश पठाडे
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प्रियदर्शनजी संवेदनशील मन के एक प्रतिभाशाली कवि है। मैने जादातर मराठी साहित्यही पढा है। लेकिन हिंदी साहित्य पढने की रुची प्रियदर्शनजी जैसे कवि, साहित्यकारोंने बढाई है। ‘अहंकारी धनुर्धारी’ यह उनके संवेदनशील भावना का एक अच्छा उदाहरण है। जब मैने ये कविता पढ़ी, तो कुछ क्षण सोच में डुबा। अर्जुन का मतलब एकाग्रता है, वीरश्री है, एक आदर्श शिष्य है, छात्र है, अर्जुन सब से सर्वश्रेष्ठ है... लेकिन अर्जुन अहंकारी भी है ये कभी सोचा नहीं था। लेकिन प्रियदर्शनजी ने अर्जुन के दूसरे स्वभाव को उजागर किया है, जो हमारी सारी पुरानी संकल्पनाओं को छेद देता है। उन्होने अर्जुन के नकारात्मक पक्ष को प्रकाश में लाया है। 

हमें वह कथा दुबारा पढनी चाहिए, जिस पर प्रियदर्शनजी ने अहंकारी धनुर्धर कविता लिखी है। क्योंकि यह कहानी हम सभी ने कहीं न कहीं पढी है, सुनी है। यह कहानी एक शिष्य या छात्र का सबसे अच्छा उदाहरण देकर हमारे जहन में बस गयी है। लेकिन प्रियदर्शनजी की कविता पढ़ने के बाद हमें दूसरी सीख भी मिलती है, जिसके बारे में हमे कभी भी बताया गया नही, या हमने कभी सोचाही नहीं, वो है अहंकारी न बनने की सीख... क्योंकि अहंकार हमने दुर्योधन में देखा, कर्ण मेंभी देखा। आखीर में अश्वत्थामा भी अहंकारी बना, जिसने ब्रह्मास्र का उपयोग किया। अहंकार कौरवों के पक्ष में था। अच्छाई तो सारी पांडवों मेंही पायी गयी। महाभारत की कहानियां हमें यही सब सिखाती रही है...। लेकिन महाभारत में अर्जुन का पात्र अहंकारी भी था। अर्जुन कैसे अहंकारी है, ये हमें प्रियदर्शनजी की कविता बताती है। उससे पहले हमें वो कहानी फिर से पढनी चाहिए...

द्रोण को धनुर्विद्या का सबसे अच्छा शिक्षक माना जाता है। ऐसा कहा जाता है, कि उनका अर्जुन के प्रति बाकी शिष्यों से अधिक स्नेह था। लेकिन द्रोण ने अर्जुन और अन्य छात्रों को साथ-साथ सिखाया। किसी को जादा नहीं की कम नहीं। हालांकि, केवल अर्जुन ही उनकी शिक्षा को अच्छी तरह समझ सके, अन्य छात्र वास्तव में वो ज्ञान अर्जित नहीं कर सके। एक दिन द्रोण धनुर्विद्या के बारे में बता रहे थे। व्यावहारिक ज्ञान देने के लिए वह सभी भाइयों को बाहर ले गए। एक पेड़ की सबसे ऊंची शाख पर उन्होंने एक पेड पर बैठे एक चिडिया दिखायी। (कई कहानियों में वो चिडियां कहीं तोता है, तो कहीं खिलौने वाली वस्तु , मगर इसमें जो भाव है वो प्रियदर्शनजी ने बताया है) उन्होंने अपने हर शिष्य से कहा कि चिडिया की बायीं आँख देखो। उस पर निशाना लगाओ। धनुष तान लेने के बाद शिष्यों को गुरु के अगले आदेश का इंतजार करना था। उनके ‘तीर चलाओ’ कहने पर ही उन्हें तीर चलाना था। गुरु ने उन्हें कुछ मिनटों के लिए इंतजार करते रहने दिया। ज्यादा तर लोग एक ही स्थान पर कुछ पल से ज्यादा ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। द्रोण ने धनुष ताने अपने शिष्यों को कुछ मिनट तक इंतजार करते रहने दिया। धनुष को तानकर रखना और किसी चीज पर ध्यान केंद्रित करना शारीरिक तौर पर थकाऊ काम होता है। कुछ मिनट के बाद द्रोण ने एक-एक कर सभी शिष्यों से पूछा कि तुम्हें क्या नजर आ रहा है? शिष्य पेड़ के पत्तों, फल, फूल, पक्षी और यहां तक कि आकाश के बारे में बताने लगे। जब अर्जुन की बारी आई, तो द्रोण ने वही सवाल दोहराया, “तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है, अर्जुन?”

अर्जुन ने कहा, “चिडिया की बायीं आंख गुरुदेव, और कुछ भी नहीं।”

उसी क्षण द्रोण ने कहा, “लक्ष्य साधो अर्जुन।” आदेश को सुनते ही अगले कुछही क्षण में अर्जुन ने काम तमाम कर दिया।

यह कहानी सुनने के बाद अक्सर हमें कहा गया है, कि अपना ध्यान लक्ष्य पर केंद्रित करो। चाहे कुछ भी हो, लेकिन लक्ष्य से विचलित नहीं होना। लेकिन प्रियदर्शनजी जैसे संवेदनशील कवि की सोच इससे अलग है। जो अर्जुन लक्ष्यभेद करता है, क्या उसके मन में चिडिया के जान की कोई भी किमत नहीं? अगर ऐसा है तो वो अहंकारी है, घमंडी है। यही बात उन्होने अहंकारी धनुर्धर में कही है।

अब मैं प्रियदर्शनजी ने कविता की ओर ध्यान केंद्रित करता हुं। 

सिर्फ़ चिड़िया की आंख देखते हैं अहंकारी धनुर्धर
आंख के भीतर बसी हुई दुनिया नहीं देखते


अर्जुन, तुम केवल उस चिडिया की आंख देखते हो, लेकिन उस में एक दुनिया भी बसी है, वो क्यों नही दिखती? यह चुभने वाला सवाल है। हर किसी का कुछ ना कुछ सपना होता है। क्या वो चिडियां में नही हो सकता? हो सकता है। आपने रामायण की कहानी भी पढी होगी। जब राजा दशरथ शिकार करने निकले, तो उनका तीर किसी जानवर के बजाय श्रावण को लगा। ये वही श्रावण है, जो अपने अंधे माता-पिता की एकलौती संतान थी। अब जब अपनी एकलौती संतान ही नहीं रही तो बुढे मां-बाप की जिने की उम्मीद ही खत्म हुई और उन्होने प्राण त्याग दिये। एक तीर से परिवार नष्ट हो गया। उसी तरह वो एक चिडिया नहीं, उस पर पूरा परिवार निर्भर है। उस चिडिया में कई सपने होंगे, जो अर्जुन नहीं देख पा रहा। क्योंकि वह केवल चिडिया की आंख ही देखता है।

एक मानव दूसरे मानव के प्रति संवेदना जता सकता है, लेकिन वही संवेदना किसी चिडिया, जानवर के प्रति नहीं जताते। शायद हम उनका भी कोई अपना विश्व होता है यह हम महसूस ही नहीं कर पाते। लेकिन प्रियदर्शनजी यह महसूस करते है। जीस आँख को अर्जुन निशाना बनाते है उसी आँख से प्रियदर्शनजी उस चिडिया का विश्व देखते है। 

नहीं देखते विशाल भरा-पूरा पेड़
नहीं देखते अपने ही वजन से झुकी हुई डाली
नहीं देखते पत्ते जिनके बीच छुपा होता है चिड़िया का घोंसला
नहीं देखते कि वह कितनी मेहनत से बीन-चुन कर लाए गए तिनकों से बना है
नहीं देखते उसके छोटे-छोटे अंडे
जिनके भीतर चहचहाहटों की कई स्निग्ध मासूम संभावनाएं
मातृत्व के ऊष्ण परों के नीचे
सिंक रही होती हैं

एकाग्रता अच्छे हुनर की पहचान है। इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन वो अंधी नहीं होनी चाहिए। हम मोटरसाइकल से घर तक आते है। हमारा लक्ष्य घर आना है। इसका मतलब ये तो नहीं कि रास्ते में आने वाले सभी को कुचलकर घर आएं। इसका मतलब ये भी तो नहीं कि किसी को नुकसान पहुंचाएं। प्रियदर्शनजी अर्जुन को कहते है, कि क्या तुम्हे फल-फुलों से भरा-पूरा पेड नही दिख रहा? वही तो है उस चिडिया की दुनिया. उसकी आंखों मे कितने अरमान समेटें होंगे। क्या वो महसूस भी नही कर पा रहे अर्जुन? उसका एक घर है, छोटे छोटे अंडे है, कुछ उम्मीदें है। यह सब नहीं देख पा रहे अर्जुन. सिर्फ उस चिडिया की आंख ही देखते है अर्जुन।

वे देखते हैं सिर्फ़ चिड़िया
जो उनकी निगाह में महज एक निशाना होती है
अपनी खिंची हुई प्रत्यंचा और अपने तने हुए तीर
और चिड़िया के बीच
महज उनकी अंधी महत्त्वाकांक्षा होती है

अर्जुन के लिए उस चिडिया की आँख एक लक्ष्य है। अर्जुन और उस चिडिया के बीच अर्जुन की अंधी महत्त्वाकांक्षा है। प्रियदर्शनजी ने इस पंक्ति में सारे भेद खोल दिए है। अर्जुन ने जो निशाना लगाया है उसे हमे एकाग्रता का पाठ पढाया गया है। लेकिन ये कौनसी एकाग्रता है जो किसी को उद्ध्वस्त करती है? किसी के जिंदगी से खेलती है? इसे एकाग्रता नहीं, अंधी महत्त्वाकांक्षा कहते है, घमंड कहते है। प्रत्यंचा खिंच कर उस चिडिया की आँख में देखने वाले अर्जुन इसी अंधी महत्त्वाकांक्षा से निर्मम लगते है।

जो नहीं देखती पेड़, डाली, घोंसला, अंडे
जो नहीं देखती चिड़िया की सिहरती हुई देह
जो नहीं देखती उसकी आंख के भीतर नई उड़ानों की अंकुरित होती संभावनाएं
वह नहीं देखती यह सब
क्योंकि उसे पता है कि देखेगी
तो चूक जाएगा वह निशाना
जो उनके वर्षों से अर्जित अभ्यास और कौशल के चरम की तरह आएगा
जो उन्हें इस लायक बनाएगा
कि जीत सकें जीवन का महाभारत

अर्जुन में इतना अहंकार भरा है कि वो चिडिया का आनंद छिनने पे तुला है। उस चिडिया के प्रति अर्जुन संवेदना भी नहीं जता पा रहे है। अगर यह संवेदना जागृत हुई तो शायद निशाना चूक जाएगा। ये निशाना चूक गया तो गुरू द्रोण का जो विश्वास है वह टूट जायेगा। इसीलिए अर्जुन उस चिडिया के प्रति कठोर होते है। अमरिका ने दूसरे विश्वयुद्ध मे जापान के हिरोशिमा आणि नागासाकी शहरों पर परमाणू बम गिराया था, तब कितना नरसंहार हुआ? अमरिका को शायद तब पता भी नहीं था कि इसकी भीषणता क्या होगी? आज भी इस नरसंहार की पीडा जापान भुगत रहा है। शायद हमारे अंदर आज भी वो अर्जुन जिंदा है जो अहंकारी एकाग्रता की मिसाल बना है। 

दरअसल यह देखने की योग्यता नहीं है
न देखने का कौशल है
जिसकी शिक्षा देते हैं
अंधे धृतराष्ट्रों की नौकरी बजा रहे बूढ़े द्रोण
ताकि अठारह अक्षौहिणी सेनाएं अठारह दिनों तक
लड़ सकें कुरुक्षेत्र में
और एक महाकाव्य रचा जा सके
जिसमें भले कोई न जीत सके
लेकिन चिड़िया को मरना हो

प्रियदर्शनजी अपनी आखरी पंक्तियों में द्रोण और धृतराष्ट्र पर निशाना साधते है। अर्जुन से क्या अपेक्षा करे, जब कि उसका गुरू द्रोण ही अंधे धृतराष्ट्र के यहाँ नोकरी करता है। द्रोण को प्रियदर्शनजी ने बुढा कहा है। बुढापा शरीरचक्र की अवस्था ही नहीं है, बल्कि अनुभव भी है। लेकिन वो अनुभव किस काम का जो सही दिशा नहीं दे सकता। बुढा द्रोण अगर ऐसा है तो अर्जुन से अच्छे कामना की अपेक्षा करना पागलपन नहीं तो और क्या है? द्रोण खूद अस्त्र, शस्त्रनिपुण थे, ज्ञानी थे। लेकिन फिर भी वो कमजोर साबित हुए। इसका अहसास उनको तब हुआ जब उनकी खूद की संतान- अश्वत्थामा को वो गाय का दूध नहीं पिला सके। इतना ज्ञान, कौशल होने के बावजूद भी मैं अपने बच्चे को एक गिलास दूध भी नहीं दे सकता? यह बात उनके मन को खाई जा रही थी। पुत्र के अंधे प्यार में उनको एक अजीबसी विकलांगता महसूस हुई। फिर उनको याद आया कि उनका एक दोस्त राजा है, जिसका नाम द्रुपद है। वो अपने राजा द्रुपद के पास गये. क्योंकि द्रुपद ने बचपन में उनको वचन दिया था कि अगर मैं राजा बनूंगा तो तुमको अपना आधा राज दे दूंगा। “लेकिन बचपन का वचन बचपना है। उसे सच मानने की भूल तुम कैसे कर सकते हो,” ऐसा कहकर द्रुपद ने बचपन के वचन को ठुकराया और द्रोण को अपमानित भी किया। अपमान से दग्ध द्रोण ने हस्तिनापुर में पनाह ली । इसके पीछे द्रोण की बदले की भावना थी। प्रियदर्शनजी ने द्रोण की यही संहारक भावना को हमारे सामने लाया है।जो गुरू बदले की भावना से शिक्षा देता है, उस गुरू के शिष्य में अहंकार कैसे नहीं हो सकता? जो शिक्षा द्रोण ने अर्जुन को दी, उन्ही शिष्यों के आधार पर द्रुपद को पराजित करके बदला पूरा किया। आगे चलकर द्रोण कौरवों का सेनापती बना। ये सारी कहानी हमें कुछ बता रही है, जिसे हम समझ नहीं पा रहे। महाभारत में ऐसे पात्र न होते तो महाकाव्य भी कैसे पूरा होता? इसी महाकाव्य ने युद्ध की रचना भी करनी थी। भलेही इस लडाई में किसी की जीत ना हो, लेकिन चिडिया का मरना तय है।

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