शायद कभी ख़्वाबों में मिलें...


फिदाभाई का कबड्डी खेलना कुरैशी खानदान में बडा अजीब था। क्योंकि फिदाभाई के खानदान में आज तक कोई खिलाडी नहीं हुआ, वो भी कबड्डी का! उन के खानदान तो संगीत कला से जुडा था। सुरों के अलावा उनके घर में और किसी के बारे में सोचना भी खानदान की परंपरा उल्लंघन होगा। 


महेश पठाडे
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“तुम्हारे इतने सारे दोस्त है... तुम्हे उनके नाम भी याद है क्या?”

जवानी में कदम रखने वाले फिदाभाई को उनके पिताजी ने एक दिन ये सवाल पूछा... फिदाभाई सीर्फ मुस्कुराये और चल दिये। लेकिन जब फिदाभाई ने अंतिम सांस ली तब पूना स्थित मोमीनपूरा के कब्रस्तान में उनके पार्थिव शरीर के अन्तिम दर्शन पाने के लिये भीड उमड पडी। पूना के कब्रस्तान के इतिहास में पहिली बार इतनी भीड शायद ही किसी ने इससे पहले देखी होगी!! शायद उनके पिताजी के सवाल का यही जवाब होगा। लेकिन ये सब देखने के लिए पिताजी नहीं थे!

एक खिलाडी, कोच रह चुके फिदाभाई का साथ जितना खिलाडीयों को मिला, उतना एक पिता के नाते उनके बच्चों को शायद ही कभी मिला हो. फिदाभाई का कबड्डी से नाता इतना गहरा था, कि आमिर, शदाफत, आफताब इन बच्चों के हिस्से में फिदाभाई बहुत कम आये।

“डॅडी हमारे हिस्से में आये ही नहीं... लेकिन जब जब आए वो पल हमारे लिए सेलिब्रेशन से कम नहीं रहा.” पिताजी की याद में आमिर, शदाफत, आफताब की आँखें नम हो जाती है। लेकिन फिदाभाई ने जितनी कबड्डी मॅनेज की उतना घर का भी ख्याल रखा...। आमिर ने फिदाभाई का व्यवस्थापन कुशलता का यह गुण भी स्पष्ट करते है। लेकिन ये तिनों बच्चों की उनके प्रति एक प्यारी सी कम्प्लेंट होती थी, वो ये कि “डॅडी, हमारे साथ थोडा वक्त गुजारीये ना...!” लेकिन फिदाभाई एक जगह ठहरे तब ना! कबड्डी के लिए पूरा भारत घूमें।

फिदाभाई थे ही ऐसे। कबड्डी उनके लिए नशा थी. ये नशे की लत लगने की एक वजह भी थी..। फिदाभाई पूना के भावे स्कूल में पढते थे। ये स्कूल पूना के पेरू गेट के पास है। बचपन से खेलने का शौक रहा। इतना, कि सभी टीचर परेशान हो जाते थे। एक दिन उनको कबड्डी खेलने की पनिशमेंट दी गयी और आगे चल कर यही सजा उन्होने बडे आनंद से उम्रकैद की तरह भुगत ली...वो भी आखरी सांस तक!

फिदाभाई का कबड्डी खेलना कुरैशी खानदान में बडा अजीब था। क्योंकि फिदाभाई के खानदान में आज तक कोई खिलाडी नहीं हुआ, वो भी कबड्डी का! उन के खानदान तो संगीत कला से जुडा था। सुरों के अलावा उनके घर में और किसी के बारे में सोचना भी खानदान की परंपरा उल्लंघन होगा। कुरैशी खानदान पे ग्वालियर घराने की गायकी का पगडा था। उनकी की पिछली सात पुस्तें संगीत कला की आराधना में लीन थी..। उनके पिताजी खाँसाहब महंमद हुसैन सारंगी वादक थे। भाई फय्याज व्हायोलीन वादक और दूसरा भाई अन्वर गझल सिंगर। एकमात्र फिदाभाई ही ऐसे थे, जो जमीं से जुडे कबड्डी से दिल लगा बैठे। कुरैशी खानदान के लिए मानो ये बडा झटका था। लेकिन उनके जीत के सूर जैसे जैसे घुमने लगे, वैसे वैसे घर का विरोध प्रोत्साहन में बदल गया। आखिर उनके पिताजी ने कहा, “किसी भी क्षेत्र में जाओ; लेकिन नाम कमाओ।” पिताजी का कोई भी शब्द फिदाभाई ने कभी खाली नहीं जाने दिया। फिदाभार्इ का मित्र परिवार इतना विशाल था, कि संगीत, स्पोर्टस सभी क्षेत्र में उनके चर्चे थे। घर का कोई भी काम वो चुटकी में कर देते थे। किसी कार्यक्रम का टिकट बुक करना हो तो घर में किसी को भी चार-पांच दिन चक्कर लगाने पडते थे..। उसके बाद भी काम होना मुश्किल ही रहा। लेकिन फिदा के एक शब्द पर काम चुटकी में हो जाता था।

फिदाभाई का घर पूना के सदाशिव पेठ में अलका थिएटर के पास था। घर के पास ही कुछ ही कदम पर नदी के उस पार डेक्कन मस्जिद है..। जुम्मे की नमाज अदा करने के लिए पहले विठ्ठल का मंदिर लगता है, उसके बाद मस्जिद। फिदाभाई पहले विठ्ठल का दर्शन लेते थे, उसके बाद नमाज अदा करते थे। वो कहते थे, कि “नदी के इस पार मेरा विठ्ठल है, नदी के उस पार मेरा खुदा है!”

फिदाभाई संगीत और कबड्डी बडे प्यार से जिए। उनको अपने बारे में सोचने के लिए वक्त ही नहीं मिलता था। फिदा के भाई फय्याज उनसे छे-सात साल बडे है। फय्याझ की व्हायोलिन पर महारथ थी, तो फिदाभाई की कबड्डी पर। लेकिन उनका लोगों के साथ उठना- बैठना फय्याझ से जादा। लोगों ने भी फिदाभाई को भरपूर प्यार दिया। फिदाभाई को मेहदी हसन की गझलें बहुत भांति थी...

वो एक गझल गाते थे, कभी कभी गुणगुणाते भी थे...

“अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें 
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें”

उनकी सुरीली गायकी जिन्होने सुनी है वो आज भी बडे अस्वस्थ होते होंगे...

पूना के कबड्डी शिक्षा शिबिर में उनका मार्गदर्शन आखरी होगा इसका किसी को अंदाजा भी नहीं था...। १७ जून २०१२ मे शिबिर शुरू हुआ उसी दिन सबेरे से उनका अनुशासन देख कर कोई भी दंग रह जायेगा। उनके आखरी दिनों में उनके साथ मोहन भावसार थे। २२ जून २०१२ मे उनके सीने में अचानक दर्द होने लगा...। तब मैदान पर वो वॉक कर रहे थे। वॉक करते करते वो गिर पडे और मैदान पे ही उन्होने आखरी सांस ली। जाने का महुरत भी चुना, शुक्रवार (जुम्मा)। कुरैशी खानदान के इस वीरपुरुष को और क्या चाहिए था?

(Divya Marathi : 28 Jun 2012)

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