शतरंज का स्टीफन हॉकिंग



ब्रितानी के भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने सैद्धान्तिक ब्रह्मांड का रहस्य भेद किया। लेकिन एक शख्स ऐसा भी है कि जिसने शतरंज में पूरा ब्रह्मांड देखा… ये शतरंज का स्टीफन हॉकिंग है महाराष्ट्र के कोल्हापूर शहर का शैलेश नेर्लीकर, जो आज हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन उसकी यादें हमेशा हमारे साथ रहेगी...


महेश पठाडे
rhythm00779@gmail.com
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स्टीफन हॉकिंग को देखकर मैं हैरान हो जाता था, की ये कैसा इन्सान है जिसका शरीर अचेतन है। उस कमजोर अवस्था में व्हीलचेयर पर बैठी उनकी प्यारीसी मु्स्कान देखकर करुणा और आश्चर्य ये दोनों भाव एकसाथ मन में उठते थे। ये शरीर की कौनसी अवस्था है जिसमें पूरे ब्रह्मांड का रहस्य भेद करने की ऊर्जा समाई है...? कहाँ से आती है ये ऊर्जा...? ब्रह्मांड के रहस्य से गहरा सवाल मेरे मन में उठ रहा था। ये सवाल स्टीफन हॉकिंग को बहुत लोगों ने शायद पूछा भी होगा और उन्होने उसका जवाब भी दिया होगा। लेकिन वो मेरी समझ के बाहर था। शायद वो मेरे बुद्धिब्रह्मांड से परे भी हो सकता है। लेकिन मैने ऐसा स्टीफन हॉकिंग देखा जिसने ब्रह्मांड शतरंज में देखा। शायद ब्रितानी के स्टीफन को भी सुलझी नहीं ऐसी कईं जटिल ब्रह्मांड के रहस्यों को वो शतरंज में आसानी से सुलझाता था। हाँ, ये वही शतरंज का स्टीफन हॉकिंग है, जिसे मैं कभी जलगाँव में मिला था। ये शख्स है कोल्हापूर का शैलेश नेर्लीकर...।



2008 की ये बात है। तब मैं जलगाँव में था। राज्य स्तरीय शतरंज प्रतियोगिता में साधारण तीस वर्ष की आयु का एक विकलांग लडका खेलने आया था। साथ में उसकी माँ थी। मदद करने के लिए कोई हो ना हो, उसकी माँ अपने दोनो हाथों की झोली बनाकर उसे उठाती थी। ये देेखकर किसी के भी मन में करुणा उठती होगी। लेकिन खेलता ऐसा था कि बडे बडे खिलाडी उसके सामने हार मानते थे। उसका खेल देखकर मैं हैरान हो गया। यहाँ करुणा खतम हुई और उसकी जगह आश्चर्य भाव ने ले ली। फिर से जिज्ञासा जागृत हई और फिर वही सवाल, जो स्टीफन हॉकिंग को देखकर मन में उठा- कहाँ से आती है ये ऊर्जा…?​


शैलेश की बीमारी ऐसी थी, की वो अपने पैरों पे खडा भी नहीं रह सकता था। हाथों की हलचल बहुत ही सीमित थी। इसलिए उसे लेटकरही खेलना पडता था। उसके पास दो ही चीजें थी- एक तो साँसे और दूसरी बुद्धि! इसके अलावा उसके पास और कुछ भी नहीं था। कहने को शरशय्या पर शयन करने वाला शरीर था। हर प्रतियोगिता में खेलने के लिए शैलेश को कुछ ना कुछ व्यवस्था हो जाती थी। आयोजक इस बारे में कुछ हद तक सतर्क थे ये उसके लिए अच्छी बात रही। जलगाँव में उसकी अच्छी खासी देख-रेख हुई इसमें कोई संदेह नहीं। तब उसके रहने का इंतजाम जलगाँव में ही तेली समाज कॉम्प्लैक्स में किया गया था। आसपास कॉलैज, अस्पताल… मतलब कि काफी यातायात के रास्ते पर उसके रहने का प्रबंध किया था। उसके लिए एक तरह से अच्छी बात रही। उसके पास ही जलगाँव का ही शतरंज खिलाडी प्रवीण सोमानी भी रहते थे। जब शैलेश को नहाने को बाल्टी नहीं थी तो सोमानी दौडकर घर गया। घर से उसने बाल्टी उठायी और शैलेश के रूम की तरफ चल पडा। सोमानी के पिता ने पूछा, ❛❛अरे बाल्टी कहां ले जा रहे हो…❜❜​ सोमानी को घर में कोई भी इस तरह पूछने लगे तो वो कभी विस्तार से कुछ भी जवाब देने का कष्ट नहीं उठाता था।  ❛❛कुछ नहीं… अभी आया…❜❜​ बस इतना कहकर सोमानी रास्ते से पैदल चलते बाल्टी लेकर आया। हर शहर में शैलेश के ऐसे चाहने वाले होते थे। (दुर्भाग्य से प्रवीण सोमानी भी 2017 में इस दुनिया से चल बसे)


शैलेश की राह काफी कठिन रही। उसकी कहानी जब उसके माँ की जुबान से सुनी तो रोंगटे खडे हुए। शैलेश के बारे में बताते बताते माँ की आंखे भर आती थी। लेकिन शैलेश शांत मुद्रा में लेटा रहता था। उसकी वो मुद्रा मानो चीवर परिधान किए हुए बुद्ध की तरह होती थी। औरों के लिए ये अवस्था खेदजनक होगी, मगर उसने तो ये अवस्था बचपन से अपनायी थी। बोलते वक्त शैलेश को तकलीफ होती थी। शैलेश थोडीसी कुछ बातें करता था, तो उसकी बातें माँ पूरी करती थी। लेकिन शैलेश में एक आत्मविश्वास था। वो कहता था कि ❛❛मेरे पास भले ही शरीर नहीं है, बुद्धि तो है। इसी बुद्धि के बल पर मैं आसमान को छू लूंगा। दुख इतना ही है कि मेरे कारण माँ को बहुत तकलिफें उठानी पड रही है। माँ है इसिलिए आज मैं खेल पा रहा हुं।❜❜​


मैं शैलेश का मन समझ पा रहा था, लेकिन उसका जितने का जजबा कायम था। उसके अंदर की यह ऊर्जाही कमाल की थी। बिलकुल स्टीफन हॉकिंग की तरह।


2008 के राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में उसने तिसरा स्थान प्राप्त किया और मैं चकित हुआ। तब उस प्रतियोगिता में बडे बडे खिलाडीयों ने भाग लिया था। उन सब को शैलेश ने पीछे छोडा। शारीरिक क्षमता वाले खिलाडीयों में उसे कभी खूद को विकलांगता महसूस नहीं हुई। आत्म-शक्ति इतनी बडी थी कि शरीर की शक्ति भी उसके सामने फिकी पडी। उससे मुलाकात ऐसी रही, मानो कि स्टीफन हॉकिंग से मिलने की खुशी जितनी थी। उसके बाद वो लगातार तीन साल जलगाँव की प्रतियोगिता में हिस्सा लेता रहा। लेकिन 2008 के बाद मेरी उससे मुलाकात न हो पाई। लेकिन उसके जीत की खबरे कहीं न कहीं से तो आती रही। जर्मनी में भी वो खेला था। तमिलनाडू के त्रिची में 2015 में शतरंज की राष्ट्रीय विकलांग प्रतियोगिता में उसने ब्रांझ मैडल प्राप्त किया था। क्रीडा पुरस्कार से भी उसे नवाजा गया।


शैलेश में एक बात खास थी कि उसने विकलांग के कारण कभी भी खेल में छूट नहीं मांगी। मतलब जब घडी पर खेलते वक्त उसने कभी ये नहीं कहा कि मुझे दो सेकंद जादा दो। उसने उतना ही समय का सामना किया जितना सामने वाले के घडी में होता था। घडी का बटन दबाते समय उसे यातना तो जरूर होती होगी. सामने वाला जितना तेजी से बटन दबाता था उतनी गती शैलेश के पास नहीं होती थी। शायद इसी कारण समय का दबाव शैलेश पर होता ही होगा। लेकिन यह दबाव उसने अपने चेहरे पर कभी नहीं दिखाया। आंतरिक ऊर्जा इससे बडी क्या होगी...!​


उसकी ये ऊर्जा कमाल की है, जो हम जैसे शारीरिक क्षमता वाले लोगों को भी प्रेरणा देती रही। ऐसे प्रतिभावान खिलाडी से मिलना सौभाग्य की बात है। और इसमें मैं अपने आप को बडा भाग्यशाली समझता हुं। लेकिन एक दिन अचानक व्हॉट्सअॅप वर एक लाइन में संदेश आया… शैलेश नहीं रहा...!! कुछ क्षण विश्वास ही नही हुआ। दुर्भाग्य से यह सच था। शतरंज में अनेक युद्ध जितने वाला ये योद्धा आधी रात में गहरी नींद में चला गया…। मन पर गहरा सदमा पहुंचा । इस आघात ने मुझे पहली बार महसूस हुआ कि विकलांगता क्या होती है… शैलेश ऐसे ब्रह्मांड मेंं चला गया जहाँ से वो कभी वापस नही लौटेगा। उसके साथ सायें की तरह रहने वाली माँ को उसने हमेशा के लिए तकलिफों से मुक्ति दिलायी।

मेरे मन में संभ्रम यह है कि ये ईश्वर का क्रूर खेल है या वेदना से मुक्ति दिलाने वाली सुंदर चाल...?​

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